ज़िंदगी मुझ को कहाँ ले आई है सामने दरिया है पीछे खाई है मुझ को ग़ैरों से नहीं शिकवा कोई था जो अपना वो भी तो हरजाई है बद-नसीबी को कोई अपनाए क्यूँ फिर मिरी जानिब ही वो लौट आई है बंद मुट्ठी में न जुगनू को करो ढल गया है दिन तो फिर शब आई है कुछ न पाएगा तो साहिल पर 'सहर' जा वहीं पर जिस जगह गहराई है