इक तबस्सुम का ए'तिबार किया अक़्ल ने सादगी से प्यार किया अस्ल से वाहिमा तराशा और फिर उसी वाहिमे को यार किया देखते हो हमारी ज़ूद-हिसी चश्म-ए-आहू ने दिल शिकार किया दिल पे जाएज़ तिरा इजारा था तू ने किस ख़ौफ़ से फ़रार किया अब कोई जुस्तुजू नहीं भाती यूँ तिरी जुस्तुजू ने ख़्वार किया उस की चाहत अजीब थी जिस ने मेरे बुझने का इंतिज़ार किया शुक्र परवरदिगार उस ने मुझे मेरी हस्ती का ग़म-गुसार किया 'मीर'-साहिब को मुँह दिखाना था मज़हब-ए-इश्क़ इख़्तियार किया ये ग़ज़ल क्या कही कि फिर 'जौहर' माह-पारा को बे-क़रार किया