तुझ में कब हुस्न-ए-बहार-ए-गुल की रा'नाई न थी कब तिरे जल्वों की इक दुनिया तमाशाई न थी ज़िंदगी-भर आरज़ू का ख़ून ही होता रहा लब पे लेकिन एक दिन भी आह तक आई न थी ये ग़लत है मेरा सज्दा वज्ह-ए-रुस्वाई हुआ रश्क-ए-मेहराब-ए-हरम कब तेरी अंगड़ाई न थी इश्क़ है इक आतिश-ए-दिल-सोज़ में जलने का नाम हम को तो रोज़-ए-अज़ल ये बात समझाई न थी हम रहे हैं मंज़िलों ही मंज़िलों में उम्र-भर जैसे क़िस्मत में किसी पहलू शकेबाई न थी इक चमन क्या दो-जहाँ की आफ़तों से दूर था ग़ुंचा-ए-नौरस के लब तक जब हँसी आई न थी क्या कहूँ 'जौहर' जो मेरे जान-ओ-दिल पर बन गई मौत का पैग़ाम था इक शाम-ए-तन्हाई न थी