झलक भी मिल न पाई ज़िंदगी की

By nomaan-shauqueFebruary 28, 2024
झलक भी मिल न पाई ज़िंदगी की
उसे जल्दी पड़ी थी वापसी की
बचाओ अपनी जलती बस्तियों को
बहुत ता'रीफ़ कर ली रौशनी की


ख़ुदाओं से भी गहरी छन रही है
मिरे जैसे फ़सादी आदमी की
वो बोले हँसते-हँसते मरते जाओ
'अजब ये शर्त है ज़िंदा-दिली की


अँधेरों ने भी चमकाया न हम को
चराग़ों ने भी हम से दिल-लगी की
लुटाते हो जो इतना प्यार मुझ पर
तुम्हें पहचान भी है आदमी की


कभी फ़ुर्सत मिले तो बात करना
ज़रूरत है ज़रा सी ज़िंदगी की
कहीं ये तंज़ तो मुझ पर नहीं है
क़सम खाते हो हर दम 'आशिक़ी की


नई मसरूफ़ियत पैदा करे कौन
किसे फ़ुर्सत है बंदा-परवरी की
96441 viewsghazalHindi