जिगर का कर्ब नज़र की जलन छुपाता हुआ
By akhtar-gwalioriMay 31, 2024
जिगर का कर्ब नज़र की जलन छुपाता हुआ
मैं जब भी उस से मिला हूँ तो मुस्कुराता हुआ
समुंदरों की तहों से कभी उफ़ुक़ से परे
मैं हर दयार से गुज़रा हूँ गुनगुनाता हुआ
'अजीब शहर है ये शहर-ए-उम्र भी जिस में
हर एक लम्हा मिला आइना दिखाता हुआ
मैं हासिदों के दिलों में हमेशा हूँ महफ़ूज़
अँधेरी क़ब्रों में रहता हूँ जगमगाता हुआ
मिरे लिए तो उरूज-ओ-ज़वाल यकसाँ हैं
न कोई आता हुआ है न कोई जाता हुआ
ज़माने भर की बुलंदी है मेरे क़दमों में
मैं वो फ़क़ीर कि चलता हूँ सर झुकाता हुआ
'अजीब शख़्स है ये 'अख़्तर'-ए-परेशाँ भी
हर एक हाल में रहता है मुस्कुराता हुआ
मैं जब भी उस से मिला हूँ तो मुस्कुराता हुआ
समुंदरों की तहों से कभी उफ़ुक़ से परे
मैं हर दयार से गुज़रा हूँ गुनगुनाता हुआ
'अजीब शहर है ये शहर-ए-उम्र भी जिस में
हर एक लम्हा मिला आइना दिखाता हुआ
मैं हासिदों के दिलों में हमेशा हूँ महफ़ूज़
अँधेरी क़ब्रों में रहता हूँ जगमगाता हुआ
मिरे लिए तो उरूज-ओ-ज़वाल यकसाँ हैं
न कोई आता हुआ है न कोई जाता हुआ
ज़माने भर की बुलंदी है मेरे क़दमों में
मैं वो फ़क़ीर कि चलता हूँ सर झुकाता हुआ
'अजीब शख़्स है ये 'अख़्तर'-ए-परेशाँ भी
हर एक हाल में रहता है मुस्कुराता हुआ
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