जो सजता है कलाई पर कोई ज़ेवर हसीनों की
By shobha-kukkalNovember 21, 2020
जो सजता है कलाई पर कोई ज़ेवर हसीनों की
तभी बढ़ती हैं क़ीमत जौहरी तेरे नगीनों की
उठा देती है दीवारें दिलों के बीच ये अक्सर
ज़रूरत क्यूँ हो फिर हम को भला ऐसी ज़मीनों की
उसी में छेद करते हैं कि जिस थाली में खाते हैं
बदल सकती नहीं आदत कभी ऐसी कमीनों की
भरा है लाख फूलों से मिरे घर का हसीं आँगन
यही है मेरी दौलत मुझ को क्या चाहत दफ़ीनों की
कभी मेहनत मशक़्क़त से कमा लोगे बहुत दौलत
मगर बदलोगे तुम कैसे लकीरों को जबीनों की
उठा कर एक बार उन को लगा लो अपने होंटों से
छुएँगी आसमाँ को क़ीमतें उन आबगीनों की
जो नुक्ता-चीं हैं रहना है हमेशा नुक्ता-चीं उन को
बदल सकती नहीं फ़ितरत कभी भी नुक्ता-चीनों की
तभी बढ़ती हैं क़ीमत जौहरी तेरे नगीनों की
उठा देती है दीवारें दिलों के बीच ये अक्सर
ज़रूरत क्यूँ हो फिर हम को भला ऐसी ज़मीनों की
उसी में छेद करते हैं कि जिस थाली में खाते हैं
बदल सकती नहीं आदत कभी ऐसी कमीनों की
भरा है लाख फूलों से मिरे घर का हसीं आँगन
यही है मेरी दौलत मुझ को क्या चाहत दफ़ीनों की
कभी मेहनत मशक़्क़त से कमा लोगे बहुत दौलत
मगर बदलोगे तुम कैसे लकीरों को जबीनों की
उठा कर एक बार उन को लगा लो अपने होंटों से
छुएँगी आसमाँ को क़ीमतें उन आबगीनों की
जो नुक्ता-चीं हैं रहना है हमेशा नुक्ता-चीं उन को
बदल सकती नहीं फ़ितरत कभी भी नुक्ता-चीनों की
48377 viewsghazal • Hindi