जो तकब्बुर से भटकती है ज़बाँ
By atif-khanOctober 27, 2020
जो तकब्बुर से भटकती है ज़बाँ
आगे आगे फिर बहकती है ज़बाँ
हो गया नासूर हर इक लफ़्ज़ है
बोलता हूँ पकने लगती है ज़बाँ
जिल्द से छन छन के बहते हैं ख़याल
और आँखों से छलकती है ज़बाँ
नाम-ए-जॉ कितना गराँ है जान पे
हल्क़ गलता है पिघलती है ज़बाँ
मो'जिज़ा है ये भी उस के क़ौल का
बूँद बन कर जो बरसती है ज़बाँ
कुछ मुलाक़ातों में ही है ये असर
तुझ में भी मेरी झलकती है ज़बाँ
आगे आगे फिर बहकती है ज़बाँ
हो गया नासूर हर इक लफ़्ज़ है
बोलता हूँ पकने लगती है ज़बाँ
जिल्द से छन छन के बहते हैं ख़याल
और आँखों से छलकती है ज़बाँ
नाम-ए-जॉ कितना गराँ है जान पे
हल्क़ गलता है पिघलती है ज़बाँ
मो'जिज़ा है ये भी उस के क़ौल का
बूँद बन कर जो बरसती है ज़बाँ
कुछ मुलाक़ातों में ही है ये असर
तुझ में भी मेरी झलकती है ज़बाँ
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