काली काली घटा बरसती है आज क्या लुत्फ़-ए-मय-परस्ती है ख़ुश लगे दिल को क्यूँ न वीराना आशिक़ों की यही तो बस्ती है आज महफ़िल में ये ख़याल रहे किस की जानिब से पेश-दस्ती है जब कि इस का भी है मआ'ल यही मय-परस्ती भी फ़ाक़ा-मस्ती है एक तीर-ए-नज़र इधर मारो दिल तरसता है जाँ तरसती है बोसा मिलता है जान के बदले 'मशरिक़ी' ख़ूब जिंस सस्ती है