कभी सुकूँ कभी सब्र-ओ-क़रार टूटेगा अगर ये दिल है तो फिर बार बार टूटेगा वो अपने ज़र्फ़ से बढ़ कर भरा हुआ बादल ये देखना कहीं बे-इख़्तियार टूटेगा वो एक पल भी किसी रोज़ आ ही जाएगा कि जब ये ज़िंदगी पर ए'तिबार टूटेगा वगर्ना चलता रहेगा ये सिलसिला यूँ ही मैं टूट जाऊँ तभी इंतिशार टूटेगा फिर एक बार ग़लत निकला ये क़यास मिरा गिरा चटान पे तो आबशार टूटेगा तिरे ज़वाल की मंज़िल अभी नहीं आई नशा तो टूट चुका अब ख़ुमार टूटेगा इसी ख़याल से शायद डरा हुआ है साज़ अगर ये राग न टूटा तो तार टूटेगा कोई उदास सा नग़्मा ही गुनगुनाएँ हम तभी तिलिस्म-ए-शब-ए-इंतिज़ार टूटेगा