कभी ज़मीन कभी आसमाँ से गुज़री है
By ali-afzal-jhanjhanviJune 2, 2024
कभी ज़मीन कभी आसमाँ से गुज़री है
मिरी हयात बड़े इम्तिहाँ से गुज़री है
ख़ुशी की धूप मयस्सर न हो सकी मुझ को
ग़मों की आँधी मिरी दास्ताँ से गुज़री है
बताऊँ क्या मैं तुम्हें ज़िंदगी के बारे में
मिरी हर एक शब अश्क-ए-रवाँ से गुज़री है
किसी के हिज्र में बर्बाद दास्तान-ए-हयात
ग़ज़ल की शक्ल में सारे जहाँ से गुज़री है
तुम्हारे हिज्र में आँखें रही हैं नम हर पल
मिरी ज़बान भी आह-ओ-फ़ुग़ाँ से गुज़री है
धड़कने लग गया तेज़ी से दिल कभी जब भी
तुम्हारी याद दिल-ए-आशियाँ से गुज़री है
हर एक सम्त से आती है प्यार की ख़ुशबू
ज़बान 'मीर' की शायद यहाँ से गुज़री है
हर एक फूल को मुरझा गई 'अली-अफ़ज़ल'
न जाने कैसी हवा गुलसिताँ से गुज़री है
नबी के दीन की 'अज़्मत के वास्ते 'अफ़ज़ल'
तमाम नस्ल-ए-अली इम्तिहाँ से गुज़री है
मिरी हयात बड़े इम्तिहाँ से गुज़री है
ख़ुशी की धूप मयस्सर न हो सकी मुझ को
ग़मों की आँधी मिरी दास्ताँ से गुज़री है
बताऊँ क्या मैं तुम्हें ज़िंदगी के बारे में
मिरी हर एक शब अश्क-ए-रवाँ से गुज़री है
किसी के हिज्र में बर्बाद दास्तान-ए-हयात
ग़ज़ल की शक्ल में सारे जहाँ से गुज़री है
तुम्हारे हिज्र में आँखें रही हैं नम हर पल
मिरी ज़बान भी आह-ओ-फ़ुग़ाँ से गुज़री है
धड़कने लग गया तेज़ी से दिल कभी जब भी
तुम्हारी याद दिल-ए-आशियाँ से गुज़री है
हर एक सम्त से आती है प्यार की ख़ुशबू
ज़बान 'मीर' की शायद यहाँ से गुज़री है
हर एक फूल को मुरझा गई 'अली-अफ़ज़ल'
न जाने कैसी हवा गुलसिताँ से गुज़री है
नबी के दीन की 'अज़्मत के वास्ते 'अफ़ज़ल'
तमाम नस्ल-ए-अली इम्तिहाँ से गुज़री है
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