क़दम क़दम पे जो अपना निशाँ बनाते हैं ज़मीं पे चलते हैं और कहकशाँ बनाते हैं हर एक लम्हा वो तूफ़ान पर नज़र रक्खें कनार-ए-बहर जो अपना मकाँ बनाते हैं बुरी नज़र न कोई सरहदों से पार उठे हम अब वतन के लिए पासबाँ बनाते हैं न बू-ए-गुल न अना की रमक़ मिली उन में जो वहशतों का सदा आशियाँ बनाते हैं हमारे बाद की नस्लें बनेंगी क्या 'मंज़र' ज़मीं को बातों में हम आशियाँ बनाते हैं