कहीं जैसे मैं कोई चीज़ रख कर भूल जाता हूँ पहन लेता हूँ जब दस्तार तो सर भूल जाता हूँ वगर्ना तो मुझे सब याद रहता है सिवा इस के कहाँ हूँ कौन हूँ क्यूँ हूँ मैं अक्सर भूल जाता हूँ मिरे इस हाल से गुमराह हो जाते हैं रहबर भी मैं अक्सर रास्ते में अपना ही घर भूल जाता हूँ दिखाता फिर रहा हूँ सब को अपने ज़ख़्म-ए-सर लेकिन मिरे हाथों में भी है एक पत्थर भूल जाता हूँ निकल जाता हूँ ख़ुद अपने हिसार-ए-ज़ात से बाहर मैं अक्सर पाँव फैलाने में चादर भूल जाता हूँ कभी जब सोचने लगता हूँ पस-ए-मंज़र के बारे में तो मेरे सामने हो कोई मंज़र भूल जाता हूँ कभी तो इतना बढ़ जाती है मेरी प्यास की शिद्दत मिरे चारों तरफ़ है इक समुंदर भूल जाता हूँ