कहने को तो मल्बूस में वो जिस्म निहाँ था

By tasnim-abbas-quraishiMarch 1, 2024
कहने को तो मल्बूस में वो जिस्म निहाँ था
हर ज़ाविया-ए-पैरहन 'उसरत से 'अयाँ था
इस दश्त में हम क़ैस को यूँ ढूँडने निकले
जैसे यहीं उस्ताद-ए-मुकर्रम का मकाँ था


उर्दू से हुआ 'इश्क़ उसे 'इश्क़ भी ऐसा
सब लोग समझने लगे वो अहल-ए-ज़बाँ था
गुमराही की दलदल से निकलते भला कैसे
रस्ता कोई इस जादा-ए-हस्ती में कहाँ था


उड़ती है जहाँ रेत यही आँख का सहरा
कहते हैं गए वक़्तों में इक सैल-ए-रवाँ था
दिन रात लपक कर मिरी लेते थे बलाएँ
तू साथ मिरे था तो मिरे साथ जहाँ था


ख़्वाहिश थी कहाँ रद्द-ए-'अमल की कोई 'तसनीम'
हर एक 'अमल अपना बिला सूद-ओ-ज़ियाँ था
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