ख़ल्क़-ए-ख़ुदा है शाह की मुख़्बर लगी हुई ख़ामोशियों की भीड़ है घर-घर लगी हुई संग ओ सग ओ सदा सभी पीछे पड़े हुए इक दौड़ सी है हम में बराबर लगी हुई सद एहतिमाम-ए-गिर्या भी आया न अपने काम बुझती नहीं है आग सी अंदर लगी हुई आओ कि मुतमइन करें अपने ज़मीर को मोहर-ए-सुकूत तोड़ दें लब पर लगी हुई लाज़िम है एहतियात फ़क़ीहान-ए-शहर को हर इक नज़र है अब सर-ए-मिंबर लगी हुई मुद्दत के ब'अद आए तो रूठी हुई सी थी तख़्ती हमारे नाम की दर पर लगी हुई उड़ती रही कुछ इस तरह रुस्वाइयों की ख़ाक जैसे 'शफ़ीक़' बात कोई पर लगी हुई