खुले जब कभी दफ़्तर-ए-रफ़्तगाँ
By kanwal-pradeep-mahajanFebruary 27, 2024
खुले जब कभी दफ़्तर-ए-रफ़्तगाँ
हों आँखें मिरी और सैल-ए-रवाँ
नज़ाकत लताफ़त ग़म-ए-जावेदाँ
कि है ख़ूब रख़्त-ए-दिल-ए-शा’इराँ
तिरा ही तसव्वुर ग़ज़ल-दर-ग़ज़ल
तिरा ही बयाँ दास्ताँ दास्ताँ
मिरी जुस्तुजू ता-उफ़ुक़ ता-उफ़ुक़
सफ़र-दर-सफ़र कारवाँ कारवाँ
ग़म-ए-ज़िंदगी मुस्तक़िल मुस्तक़िल
मिरा ज़ौक़-ए-फ़न राएगाँ राएगाँ
हों आँखें मिरी और सैल-ए-रवाँ
नज़ाकत लताफ़त ग़म-ए-जावेदाँ
कि है ख़ूब रख़्त-ए-दिल-ए-शा’इराँ
तिरा ही तसव्वुर ग़ज़ल-दर-ग़ज़ल
तिरा ही बयाँ दास्ताँ दास्ताँ
मिरी जुस्तुजू ता-उफ़ुक़ ता-उफ़ुक़
सफ़र-दर-सफ़र कारवाँ कारवाँ
ग़म-ए-ज़िंदगी मुस्तक़िल मुस्तक़िल
मिरा ज़ौक़-ए-फ़न राएगाँ राएगाँ
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