ख़ुशी के दिन हों तो उजला लिबास सब पहनें और एक हम कि वही जामा-ए-ताब पहनें उतारें अपने बदन से अकेले-पन की धूप किसी निगाह को ओढें किसी के लब पहनें ब-वक़्त-ए-सुबह पहन लेंगे फिर लबादा-ए-ख़ुशक नम-ए-विसाल ही अच्छा है शब की शब पहनें ख़रीदा और सुलाया भी इस्त्री भी किया मगर समझ नहीं आती वो सूट कब पहनें अजीब इन के रवय्यों में बद-तमीज़ी है ये अहल-ए-शहर कभी जामा-ए-अदब पहनें पहनने की हमें आज़ादी मिल रही है मगर समाज जिस को समझता है मा-वजब पहनें हमारे दिल ने गवारा नहीं किया 'यावर' हम उस के हिज्र में पैराहन-ए-तरब पहनें