वस्ल में रफ़्तार-ए-मा'शूक़ाना दिखलाती है नींद आज किन अटखेलियों से आँखों में आती है नींद याद-ए-चश्म-ए-सुर्मगीं में शब को गर आती है नींद सूरत-ए-मुर्ग़-ए-निगह आँखों से उड़ जाती है नींद फ़ुर्क़त-ए-दिलदार में सहवन अगर आती है नींद आँख से बाहर ही बाहर आ के फिर जाती है नींद ऐन बे-होशी है हुश्यारी न समझा चाहिए अहल-ए-ग़फ़लत की तो बेदारी भी कहलाती है नींद करवटें ले ले के कहते हैं शब-ए-फ़ुर्क़त में हम किस तरह ऐ ख़ुफ़्तगान-ए-ख़ाक आ जाती है नींद इन की फ़ुर्क़त में न पूछो सरगुज़िश्त-ए-ख़्वाब-ए-चश्म आज-कल पा-ए-निगह की ठोकरें खाती है नींद सब्ज़ा-ए-ख़्वाबीदा-ए-गुलशन का जब आता है ज़िक्र तब क़फ़स में कोई दम बुलबुल को आ जाती है नींद फ़ुर्क़त-ए-दिलदार में सोने को मरना कहते हैं आशिक़ों में ख़्वाब-ए-मर्ग ऐसे ही कहलाती है नींद नींद को भी नींद आ जाती है हिज्र-ए-यार में छोड़ कर बे-ख़्वाब मुझ को आप सो जाती है नींद कहते हैं सोना उसे चौंका न रोज़-ए-हश्र तक इस हमारी बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता की क़सम खाती है नींद क्या ग़लत समझे वो आएगा फड़कती है जो आँख आँख में ख़ौफ़-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त से थर्राती है नींद फ़ुर्क़त-ए-दिलदार में जो रात भर आई न थी वस्ल में आती हुई आँखों शरमाती है नींद मुंतज़िर रखती है ग़म्ज़े करती है आती नहीं ओ बुत-ए-तरसा तिरी फ़ुर्क़त में तरसाती है नींद कू-ए-जानाँ से जो उठता हूँ तो सो जाते हैं पाँव दफ़अ'तन आँखों से पाँव में उतर आती है नींद गर्मी-ए-सोज़-ए-जिगर बेताब कर देती है जब ठंडी साँसें ऐसी भरता हूँ कि आ जाती है नींद तेग़ का फल खाया आब-ए-तेग़ पी कर सो रहे कसरत-ए-आब-ओ-ग़िज़ा से वाक़ई आती है नींद सूरत-ए-ज़ाहिद न जागो हज़रत-ए-दिल सो रहो क़िबला-ए-मन काबा-ए-मक़्सूद दिखलाती है नींद इस मिरी दीवानगी पर ऐ जुनूँ पत्थर पड़ें आँख के ढेले लगाता हूँ अगर आती है नींद वाह रे तासीर-ए-उल्फ़त बल बे-फ़र्त-ए-इत्तिहाद ग़श पे ग़श आते हैं मुझ को जब उन्हें आती है नींद सोते हो तो चश्म-ए-बद्दूर आँखें रहती हैं खुली फ़ित्ना-ए-बेदार क्या ऐसे ही कहलाती है नींद हिज्र में सोने की ऐसी ही तमन्ना ऐ 'वज़ीर' देखता हूँ उस को हसरत से जिसे आती ही नींद