किसी भी दश्त किसी भी नगर चला जाता मैं अपने साथ ही रहता जिधर चला जाता वो जिस मुंडेर पे छोड़ आया अपनी आँखें मैं चराग़ होता तो लौ भूल कर चला जाता उसे बचा लिया आवारगान-ए-शाम ने आज वगर्ना सुब्ह का भूला तो घर चला जाता मिरा मकाँ मिरी ग़फ़लत से बच गया वर्ना कोई चुरा के मिरे बाम-ओ-दर चला जाता अगर मैं खिड़कियाँ दरवाज़े बंद कर लेता तो घर का भेद सर-ए-रहगुज़र चला जाता थकन बहुत थी मगर साया-ए-शजर में 'जमाल' मैं बैठता तो मिरा हम-सफ़र चला जाता