किसी को वस्ल में उल्फ़त का सागर मार देता है किसी को हिज्र में यादों का लश्कर मार देता है बड़ी मुश्किल से ग़ज़लों में सितम उस के सुनाता हूँ मगर फिर आप लोगों का मुकर्रर मार देता है मोहब्बत कर तो लूँगा मैं किसी से भी मगर यारो कोई महबूब ऐसा है जो यकसर मार देता है मैं जब भी भेजता हूँ ख़त पहुँचता ही नहीं उस तक न-जाने कौन रस्ते में कबूतर मार देता है मैं अपने वस्ल की यादों पे जी लेता मगर जानाँ मुझे हर पल जुदाई का वो मंज़र मार देता है ज़माने से तो लड़ लेते हैं हम ता-'उम्र पर 'आलम' मिरे जैसों को अक्सर ये मुक़द्दर मार देता है