कोई हबीब कोई मेहरबाँ तो है ही नहीं

By jagjit-kafirDecember 26, 2020
कोई हबीब कोई मेहरबाँ तो है ही नहीं
हमारे सर पे कोई आसमाँ तो है ही नहीं
जो एक अक्स-ए-हक़ीक़त है टूट जाए अगर
पता चले कि जहाँ में जहाँ तो है ही नहीं


मैं एक उम्र से रब की तलाश करता हूँ
जहाँ पे उस का निशाँ था वहाँ तो है ही नहीं
हर एक ज़ुल्म को चुप-चाप सह रहे हैं सभी
मुआ'शरे में कोई बा-ज़बाँ तो है ही नहीं


ये अश्क-ए-ग़म का फ़साना सुना के मानेगा
किसी भी तौर मिरा राज़दाँ तो है ही नहीं
करोगे इश्क़ तो जानोगे ग़ैब को 'काफ़िर'
हर एक राज़ है ज़ाहिर निहाँ तो है ही नहीं


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