लगी थी 'उम्र परिंदों को घर बनाते हुए

By ahmad-irfanMay 24, 2024
लगी थी 'उम्र परिंदों को घर बनाते हुए
किसी ने क्यूँ नहीं सोचा शजर गिराते हुए
ये ज़िंदगी थी जो धुतकारती रही मुझ को
मैं बात करता रहा उस से मुस्कुराते हुए


बदन था चूर मिरा हिज्र की मशक़्क़त से
सो नींद आई मुझे दर्द को सुलाते हुए
कोई तो उस पे क़यामत गुज़र गई होगी
कि आप-बीती वो रोने लगा सुनाते हुए


'अजीब नींद में था ख़्वाब-गाह-ए-हस्ती की
मैं इस जहाँ से तिरे उस जहाँ में जाते हुए
कहानी-गो के हर इक लफ़्ज़ में थी जादूगरी
रुला दिया था हर इक शख़्स को हँसाते हुए


न मेरी चश्म-ए-तमन्ना में जच सकी दुनिया
पलट के देखता कैसे उसे मैं जाते हुए
मैं जल उठा था तिरे ही ख़याल की लौ से
तुझे ख़याल न आया मुझे बुझाते हुए


61607 viewsghazalHindi