लाखों ग़म छुपाए हैं इक ख़ुशी के पर्दे में दर्द ही के साए हैं हर हँसी के पर्दे में क्या यक़ीं करें यारो अपने हों कि बेगाने दुश्मनी ही पाते हैं दोस्ती के पर्दे में ये भी तो हक़ीक़त है तल्ख़ ही सही लेकिन मौत ही के साए हैं ज़िंदगी के पर्दे में हसरतों की बस्ती में है जनाज़ा अरमाँ का कुल्फ़तें ही पाते हैं दिल लगी के पर्दे में वो जफ़ा के ख़ूगर हैं हम वफ़ा के पर्वर्दा उल्फ़तें भी पाते हैं बरहमी के पर्दे में अपनी कम-नसीबी का क्या करें गिला 'आज़िम' तीरगी ही पाते हैं रौशनी के पर्दे में