लम्हा लम्हा बिखर रहा हूँ मैं अपनी तकमील कर रहा हूँ मैं ख़ूब से ख़ूब-तर है रू-ए-हयात नए सिंघार कर रहा हूँ मैं खुलते जाते हैं ज़ेहन के औराक़ तजरबों से गुज़र रहा हूँ मैं तेरा होना न मान कर गोया तुझ को तस्लीम कर रहा हूँ मैं ख़ुद से ना-आश्ना सही लेकिन तुझ से कब बे-ख़बर रहा हूँ मैं महव ऐसा हूँ ख़ुद-परस्ती में गोया तुझ से मुकर रहा हूँ मैं