लौ बढ़ा जाती है ज़ख़्मों की सबा शाम के बाद जगमगाते हैं चराग़ान-ए-वफ़ा शाम के बाद आग छिड़की गई जलती हुई तन्हाई पर सरसराई तिरी ज़ुल्फ़ों की हवा शाम के बाद दिल के जलते हुए शहरों से परे दूर कहीं तेरी लय में था कोई नग़्मा-सरा शाम के बाद दिन के हंगामों की हर चोट जवाँ होती है फिर सँभलती है मिरी लग़्ज़िश-ए-पा शाम के बाद सुब्ह जागी तो महकने लगे ज़ख़्मों के गुलाब ग़म की पलकों पे जली दिल की चिता शाम के बाद ज़ह्न ख़्वाबों की सलीबों पे लटकता ही रहा झनझनाती रही ज़ंजीर-ए-जफ़ा शाम के बाद ये दकन ये लब-ए-मूसा ये सनम-ज़ार 'कलीम' उम्र-ए-रफ़्ता मुझे देती है सदा शाम के बाद