लिए फिरता है ख़ूँ-आलूद कब तक पैरहन आख़िर

By adnan-hamidMay 21, 2024
लिए फिरता है ख़ूँ-आलूद कब तक पैरहन आख़िर
मिलेगा बाद मरने के सफ़ेदा इक कफ़न आख़िर
न आए मुझ से क्यूँकर ख़ुशबू-ए-मुश्क-ए-हिरन आख़िर
छुआ था संदली हाथों से उस ने ये बदन आख़िर


मचा इक रन है दुनिया में निहत्था शख़्स हूँ मैं याँ
जिऊँ कैसे रहूँ कब तक यहाँ मैं ख़ेमा-ज़न आख़िर
उड़ा है फ़ाख़्ता जब से ये ड्योढ़ी से मिरे घर की
पलट के आ गई वापस मिरे घर की घुटन आख़िर


फफक कर रो रहे यूँ ये तुम क्यों मर नहीं जाते
नहीं मैं मर नहीं सकता नहीं हूँ कोहकन आख़िर
किसी भी आदमी को फेंक दो गर ख़ुश्क कुएँ में
निकल सकता नहीं है वो सिवाए मोजज़न आख़िर


कहे जाती है ऊधौ से ये रो रो कर के हर गोपी
बता अब कब सताएँगे मुझे मेरे किशन आख़िर
मिरे सीने में इक लड़की कहीं पर दफ़्न है यारो
भुलाऊँ मैं उसे कैसे करूँ कितने जतन आख़िर


किसी को चाह नहीं सकता हूँ मैं उस के सिवा 'हामिद'
ये जादू मंतरों का है वो ठहरी बरहना आख़र
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