मैं जब वजूद के हैरत-कदे से मिल रहा था

By ali-zaryounJune 3, 2024
मैं जब वजूद के हैरत-कदे से मिल रहा था
मुझे लगा मैं किसी मो'जिज़े से मिल रहा था
मैं जागता था कि जब लोग सो चुके थे तमाम
चराग़ मुझ से मिरे तज्रबे से मिल रहा था


हवस से होता हुआ आ गया मैं 'इश्क़ की सम्त
ये सिलसिला भी उसी रास्ते से मिल रहा था
ख़ुदा से पहली मुलाक़ात हो रही थी मिरी
मैं अपने आप को जब सामने से मिल रहा था


‘अजीब लय थी जो तासीर दे रही थी मुझे
‘अजीब लम्स था हर ज़ाविए से मिल रहा था
मैं उस के सीना-ए-शफ़्फ़ाफ़ की हरी लौ से
दहक रहा था सो पूरे मज़े से मिल रहा था


सवाब-ओ-ताअ'त-ओ-तक़्वा फ़ज़ीलत-ओ-अलक़ाब
पड़े हुए थे कहीं मैं नशे से मिल रहा था
तिरे जमाल का बुझना तो लाज़मी था कि तू
बग़ैर 'इश्क़ किए आइने से मिल रहा था


ज़मीन भी मिरे आग़ोश-ए-सुर्ख़ में थी 'अली'
फ़लक भी मुझ से हरे ज़ाइक़े से मिल रहा था
49676 viewsghazalHindi