मैं ज़र्द आग न पानी के सर्द डर में रहा
By zafar-iqbalNovember 27, 2020
मैं ज़र्द आग न पानी के सर्द डर में रहा
रहा तो सोई हुई ख़ाक के ख़तर में रहा
वो गर्द-बाद कि दिल की ज़बाँ का ज़ाइक़ा है
नज़र-उफ़ुक़ पे हुवैदा हुआ न सर में रहा
कि शामिल इस में मिरी लर्ज़िश-ए-ख़याल भी थी
जो असल छोड़ के मैं अक्स के असर में रहा
तिरे लिबास पे हो उस की वापसी की चमक
जो एक उम्र तिरे ख़ून के असर में रहा
घिरा था चारों तरफ़ धोड़ की क़नात सा मैं
मगन ज़माना किसी नक़्श-ए-तर-ब-तर में रहा
उस एक लम्हे की गुम-गश्तगी पे ख़ुश हैं सभी
जो हश्र बन के मिरे संग-ए-बे-शरर में रहा
ये शहर ज़िंदा है लेकिन हर एक लफ़्ज़ की लाश
जहाँ कहीं से उठी शोर मेरे घर में रहा
चपातियाँ थीं बंधी पेट पर मगर शब-भर
उभरता डूबता मैं भूक के भँवर में रहा
कहाँ से कैसे किसे कौन ले उड़ा था 'ज़फ़र'
जो आधी रात को रौला सा दश्त ओ दर में रहा
रहा तो सोई हुई ख़ाक के ख़तर में रहा
वो गर्द-बाद कि दिल की ज़बाँ का ज़ाइक़ा है
नज़र-उफ़ुक़ पे हुवैदा हुआ न सर में रहा
कि शामिल इस में मिरी लर्ज़िश-ए-ख़याल भी थी
जो असल छोड़ के मैं अक्स के असर में रहा
तिरे लिबास पे हो उस की वापसी की चमक
जो एक उम्र तिरे ख़ून के असर में रहा
घिरा था चारों तरफ़ धोड़ की क़नात सा मैं
मगन ज़माना किसी नक़्श-ए-तर-ब-तर में रहा
उस एक लम्हे की गुम-गश्तगी पे ख़ुश हैं सभी
जो हश्र बन के मिरे संग-ए-बे-शरर में रहा
ये शहर ज़िंदा है लेकिन हर एक लफ़्ज़ की लाश
जहाँ कहीं से उठी शोर मेरे घर में रहा
चपातियाँ थीं बंधी पेट पर मगर शब-भर
उभरता डूबता मैं भूक के भँवर में रहा
कहाँ से कैसे किसे कौन ले उड़ा था 'ज़फ़र'
जो आधी रात को रौला सा दश्त ओ दर में रहा
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