मैं लौह-ए-अर्ज़ पे नाज़िल हुआ सहीफ़ा हूँ

By ali-akbar-abbasJune 2, 2024
मैं लौह-ए-अर्ज़ पे नाज़िल हुआ सहीफ़ा हूँ
दिलों पे सब्त हूँ पेशानियों पे लिक्खा हूँ
पुरानी रुत मिरा मुज़्दा सुना के जाती है
नई रुतों के जिलौ में सदा उतरता हूँ


मैं कौन हूँ मुझे सब पूछने से डरते हैं
मैं रोज़ एक नए कर्ब से गुज़रता हूँ
मैं एक ज़िंदा हक़ीक़त हूँ कौन झुटलाए
जो होंट बंद रहें आँख से छलकता हूँ


खुली हवा में जो आऊँ तो राख बन जाऊँ
अभी मैं ज़ेर-ए-ज़मीं हूँ मगर उबलता हूँ
किसी तरह तो सवेरों की आँख खुल जाए
मैं शहर शहर में सूरज उठाए चलता हूँ


91076 viewsghazalHindi