मैं पिछली रात क्या जाने कहाँ था दुआओं का भी लहजा बे-ज़बाँ था हवा गुम-सुम थी सूना आशियाँ था परिंदा रात भर जाने कहाँ था हवाओं में उड़ा करते थे हम भी हमारे सामने भी आसमाँ था मिरी तक़दीर थी आवारागर्दी मिरा सारा क़बीला बे-मकाँ था मज़े से सो रही थी सारी बस्ती जहाँ मैं था वहीं शायद धुआँ था मैं अपनी लाश पर आँसू बहाता मुझे दुख था मगर इतना कहाँ था सफ़र काटा है कितनी मुश्किलों से वहाँ साया न था पानी जहाँ था कहाँ से आ गई ये ख़ुद-नुमाई वहीं फेंक आओ आईना जहाँ था मैं क़त्ल-ए-आम का शाहिद हूँ 'क़ैसर' कि बस्ती में मिरा ऊँचा मकाँ था