मकान-ए-ख़्वाब में जंगल की बास रहने लगी

By afzaal-naveedMay 22, 2024
मकान-ए-ख़्वाब में जंगल की बास रहने लगी
कोई न आया तो ज़ीनों पे घास रहने लगी
तिरे वजूद का जब से लिबास रहने लगी
लिए दिए हुए मुझ से कपास रहने लगी


ये और बात अनोखी सी प्यास रहने लगी
मिरी ज़बान पे उस की मिठास रहने लगी
झलक थी या कोई ख़ुशबू-ए-ख़द्द-ओ-ख़ाल थी वो
चली गई तो मिरे आस पास रहने लगी


गया हुजूम लिए बाज़-दीद नक़्श-ए-क़दम
हवा-ए-राहगुज़र बद-हवास रहने लगी
ज़राए' जो थे मयस्सर हुए ग़ुबार-ए-शनाख़्त
दरूँ से चश्म-ए-दरूँ ना-शनास रहने लगी


अभी ग़ुबार न उतरा था साँस का अंदर
उतरने की पस-ए-ज़िंदाँ भड़ास रहने लगी
उतार फेंक दिया जो था जिस्म-ए-बोसीदा
सितारों की कोई उतरन लिबास रहने लगी


ज़ियादा ज़ोर लगाने से कुछ न हो सकता
सो आए रोज़ की हलचल ही रास रहने लगी
लहद ने दामन-ए-यख़-बस्ता खोल कर रक्खा
बदन में गर्मी-ए-ख़ौफ़-ओ-हिरास रहने लगी


न जाने अंधे कुओं की वो तिश्नगी थी क्या
हर एक आँख में जो बे-लिबास रहने लगी
बिगाड़ जिस से हो पैदा कोई बिगाड़ नहीं
सो मो'जिज़े की मिरे दिल को आस रहने लगी


मुग़ाइरत से भरी तीरगी के बीच 'नवेद'
इक अंदरूनी रमक़ रू-शनास रहने लगी
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