माँझी तिरी कश्ती के तलबगार बहुत हैं
By umar-quraishiFebruary 8, 2022
माँझी तिरी कश्ती के तलबगार बहुत हैं
कुछ लोग हैं इस पार तो उस पार बहुत हैं
जिस शहर में पत्थर की दुकाँ खोली है तू ने
उस शहर में शीशे के ख़रीदार बहुत हैं
अब तक न बना पाए कोई ताज-महल और
कहने को तो इस शहर में मे'मार बहुत हैं
तुम शोर-ए-अनल-हक़ को दबा ही नहीं सकते
ये जान लो मंसूर सर-ए-दार बहुत हैं
ख़ुद अपने समझने का नहीं है कोई मेआ'र
औरों को समझने के तो मेआ'र बहुत हैं
कुछ सोच के तुम शहर की राहों से गुज़रना
दो एक जो अपने हैं तो अग़्यार बहुत हैं
कहने को तो बस्ती है ये शोरीदा-सरों की
दीवाने मगर चंद हैं हुशियार बहुत हैं
क्या पाओगे इंसाफ़ की ज़ंजीर हिला कर
इस शहर में क़ातिल के तरफ़-दार बहुत हैं
हालात सभी एक हवादिस भी सभी एक
ख़बरें भी सभी एक हैं अख़बार बहुत हैं
मैं जा के 'उमर' अपनी ग़ज़ल किस को सुनाऊँ
इस शहर-ए-सुख़न-दाँ में तो फ़नकार बहुत हैं
कुछ लोग हैं इस पार तो उस पार बहुत हैं
जिस शहर में पत्थर की दुकाँ खोली है तू ने
उस शहर में शीशे के ख़रीदार बहुत हैं
अब तक न बना पाए कोई ताज-महल और
कहने को तो इस शहर में मे'मार बहुत हैं
तुम शोर-ए-अनल-हक़ को दबा ही नहीं सकते
ये जान लो मंसूर सर-ए-दार बहुत हैं
ख़ुद अपने समझने का नहीं है कोई मेआ'र
औरों को समझने के तो मेआ'र बहुत हैं
कुछ सोच के तुम शहर की राहों से गुज़रना
दो एक जो अपने हैं तो अग़्यार बहुत हैं
कहने को तो बस्ती है ये शोरीदा-सरों की
दीवाने मगर चंद हैं हुशियार बहुत हैं
क्या पाओगे इंसाफ़ की ज़ंजीर हिला कर
इस शहर में क़ातिल के तरफ़-दार बहुत हैं
हालात सभी एक हवादिस भी सभी एक
ख़बरें भी सभी एक हैं अख़बार बहुत हैं
मैं जा के 'उमर' अपनी ग़ज़ल किस को सुनाऊँ
इस शहर-ए-सुख़न-दाँ में तो फ़नकार बहुत हैं
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