मंज़र-ए-शहर है ख़ूँ-बार ज़रा देर से आ

By v.-sudhakar-raoFebruary 8, 2022
मंज़र-ए-शहर है ख़ूँ-बार ज़रा देर से आ
रो रहे हैं दर-ओ-दीवार ज़रा देर से आ
तेज़ है वक़्त की रफ़्तार ख़ुदा ख़ैर करे
लम्हा लम्हा है गिराँ-बार ज़रा देर से आ


मैं तिरे ख़्वाब का हासिल हूँ तो मायूस न हो
रात भर रहता हूँ बेदार ज़रा देर से आ
शहर-ए-इख़्लास में इक आग लगी है हर सू
कुछ क़यामत के हैं आसार ज़रा देर से आ


जब मनाज़िर न हों ग़मगीन न चेहरे हों उदास
तब मनाऊँगा मैं त्यौहार ज़रा देर से आ
लाश रक्खी है अभी मश्क़-ए-सितम करने को
देर से आ ऐ अज़ा-दार ज़रा देर से आ


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