मरीज़-ए-मोहब्बत उन्हीं का फ़साना सुनाता रहा दम निकलते निकलते

By qamar-jalalviFebruary 28, 2024
मरीज़-ए-मोहब्बत उन्हीं का फ़साना सुनाता रहा दम निकलते निकलते
मगर ज़िक्र शाम-ए-अलम का जब आया चराग़-ए-सहर बुझ गया जलते जलते
उन्हें ख़त में लिक्खा था दिल मुज़्तरिब है जवाब उन का आया मोहब्बत न करते
तुम्हें दिल लगाने को किस ने कहा था बहल जाएगा दिल बहलते बहलते


मुझे अपने दिल की तो पर्वा नहीं है मगर डर रहा हूँ कि बचपन की ज़िद है
कहीं पा-ए-नाज़ुक में मोच आ न जाए दिल-ए-सख़्त-जाँ को मसलते मसलते
भला कोई वा'दा-ख़िलाफ़ी की हद है हिसाब अपने दिल में लगा कर तो सोचो
क़यामत का दिन आ गया रफ़्ता रफ़्ता मुलाक़ात का दिन बदलते बदलते


इरादा था तर्क-ए-मोहब्बत का लेकिन फ़रेब-ए-तबस्सुम में फिर आ गए हम
अभी खा के ठोकर सँभलने न पाए कि फिर खाई ठोकर सँभलते सँभलते
बस अब सब्र कर रहरव-ए-राह-ए-उल्फ़त कि तेरे मुक़द्दर में मंज़िल नहीं है
उधर सामने सर पे शाम आ रही है इधर थक गए पाँव भी चलते चलते


वो मेहमान मेरे हुए भी तो कब तक हुई शम' गुल और न डूबे सितारे
'क़मर' इस क़दर उन को जल्दी थी घर की कि घर चल दिए चाँदनी ढलते ढलते
49362 viewsghazalHindi