मौज-ए-बला में रोज़ कोई डूबता रहे साहिल हर एक बार मगर देखता रहे यारों की कश्तियाँ रहीं साहिल से बे-नियाज़ तूफ़ाँ से बे-नियाज़ अगर नाख़ुदा रहे ख़ैरात में कभी नहीं माँगीं मोहब्बतें हर-चंद मेरे दोस्त मुझे आज़मा रहे जिन को नहीं थी दौलत-ए-एहसास तक नसीब तकरीम-ए-बे-नज़र में वही देवता रहे मैं ऐसे हुस्न-ए-ज़न को ख़ुदा मानता नहीं आहों के एहतिजाज से जो मावरा रहे माना कि हर तरह है तग़य्युर से बे-नियाज़ लेकिन वो हाल-ए-ग़म से तो कुछ आश्ना रहे 'कैफ़ी' ज़मीर-बाख़्ता लोगों से कब तलक ख़ैरात-ए-एहतिराम कोई माँगता रहे