मज़ा आता किसी सूरत अगर तर्क-ए-वफ़ा होता
By abbas-ali-khan-bekhudApril 22, 2024
मज़ा आता किसी सूरत अगर तर्क-ए-वफ़ा होता
तुम्हारी तरह मैं भी बे-वफ़ा होता तो क्या होता
मुसीबत हो गई आख़िर तमन्ना की गिरफ़्तारी
अगर बे-मुद्दआ होता तो बंदा भी ख़ुदा होता
ये शान-ए-बे-नियाज़ी है ख़ुदा मा'लूम होता है
ख़ुदा मा'लूम क्या होता अगर वो बुत ख़ुदा होता
न रहता यूँ परेशाँ रात दिन मैं फ़िक्र-ए-दरमाँ में
जो मुझ को दर्द देना था तो बे-दरमाँ दिया होता
हमारी ना-उमीदी का तो है इल्ज़ाम क़िस्मत पर
तुम्हारा मुद्दआ' होता तो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता होता
किसी के पास दिल होता तो शरह-ए-दर्द-ए-दिल करते
ये हसरत रह गई हम को कोई दर्द-आश्ना होता
अज़ल से सोख़्ता-सामाँ हूँ फ़िक्र-ए-आशियाँ क्या हो
न गिरती बर्क़ तो ये सोज़-ए-दिल से जल गया होता
न मुझ से इल्तिजा होती न ख़ुद वो मेहरबाँ होते
गुज़र होता भी उन की बज़्म में अपना तो क्या होता
दम-ए-आख़िर मरीज़-ए-ग़म ख़ुदा मालूम क्या कहता
न होते मेहरबाँ सुन कर मगर सुन तो लिया होता
हमारी बे-कसी भी इक न इक दिन काम आ जाती
अगर 'बेख़ुद' कोई हम बे-कसों का भी ख़ुदा होता
तुम्हारी तरह मैं भी बे-वफ़ा होता तो क्या होता
मुसीबत हो गई आख़िर तमन्ना की गिरफ़्तारी
अगर बे-मुद्दआ होता तो बंदा भी ख़ुदा होता
ये शान-ए-बे-नियाज़ी है ख़ुदा मा'लूम होता है
ख़ुदा मा'लूम क्या होता अगर वो बुत ख़ुदा होता
न रहता यूँ परेशाँ रात दिन मैं फ़िक्र-ए-दरमाँ में
जो मुझ को दर्द देना था तो बे-दरमाँ दिया होता
हमारी ना-उमीदी का तो है इल्ज़ाम क़िस्मत पर
तुम्हारा मुद्दआ' होता तो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता होता
किसी के पास दिल होता तो शरह-ए-दर्द-ए-दिल करते
ये हसरत रह गई हम को कोई दर्द-आश्ना होता
अज़ल से सोख़्ता-सामाँ हूँ फ़िक्र-ए-आशियाँ क्या हो
न गिरती बर्क़ तो ये सोज़-ए-दिल से जल गया होता
न मुझ से इल्तिजा होती न ख़ुद वो मेहरबाँ होते
गुज़र होता भी उन की बज़्म में अपना तो क्या होता
दम-ए-आख़िर मरीज़-ए-ग़म ख़ुदा मालूम क्या कहता
न होते मेहरबाँ सुन कर मगर सुन तो लिया होता
हमारी बे-कसी भी इक न इक दिन काम आ जाती
अगर 'बेख़ुद' कोई हम बे-कसों का भी ख़ुदा होता
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