मेरा अदम वजूद भी क्या ज़र-निगार था चारों तरफ़ ख़ला में चमकता ग़ुबार था साहिल बनी निगाह की हद फ़ासले मिटे गिर्दाब-ए-मौज-ए-दूद मकाँ का हिसार था पी कर लहू सियाह हुई किश्त-ए-आरज़ू क्या देखते कि ख़ाक का दा'वा बहार था मौजों में डूबती हुई सुर्ख़ी थी शाम की दिल दश्त-ए-पुर-सुकूत था दरिया क़रार था इक बोझ उठाए शाम को लौटा हूँ मैं निढाल मैं अपने दाम-ए-शौक़ में क्या ख़ुद शिकार था दिल का सुराग़ क्या कि जहाँ तक निगाह की नैरंग-ए-नक़्श-ए-रफ़्ता-ए-पा-ए-फ़रार था मैं इक शजर सुकूत था और मेरी छाँव में गिरता हुआ सदाओं का इक आबशार था ख़ुर्शीद-ओ-माह मेरे लिए इक फ़साना थे तारीक जंगलों का मैं लैल-ओ-नहार था शो'ले दराज़ दस्त थे और मेरे सामने ख़ुर्शीद शाम-ए-दश्त का तारीक ग़ार था मैं ख़ाक-ए-दिल बिखेर रहा था हवा में 'ज़ेब' और इस से बे-ख़बर था कि उस में शरार था