मेरे जुनून-ए-शौक़ का आलम ही और था
By rafeeq-jabirJanuary 27, 2022
मेरे जुनून-ए-शौक़ का आलम ही और था
वो इब्तिदा-ए-इश्क़ का मौसम ही और था
जिस ने मिरे शुऊ'र को बख़्शा था ए'तिबार
वो ग़म ग़म-ए-हयात न था ग़म ही और था
वो लन-तरानियाँ न वो लाफ़-ओ-ग़ज़ाफ था
वो आ गया तो बज़्म का आलम ही और था
तहज़ीब-ए-नौ ने मोम को पत्थर बना दिया
इक दिन वो था फ़साना-ए-आदम ही और था
लज़्ज़त-शनास ज़ेर-ए-ग़म-ए-इश्क़ था ये दिल
लेकिन जो अब के बार मिला सम ही और था
शरह-ओ-बयाँ से और उलझता चला गया
ऐ हम-नशीं वो क़िस्सा-ए-मुबहम ही और था
पहले भी अर्ज़-ए-हाल ये रोया है वो मगर
कल रात उस का गिर्या-ए-पैहम ही और था
ख़ंजर की धार जिस ने रग-ए-जाँ से काट दी
वो ए'तिबार-ए-अज़्मत-ए-आदम ही और था
'जाबिर' हरीफ़-ए-गर्दिश-ए-दौराँ था उन दिनों
वो था शरीक-ए-हाल तो दम-ख़म ही और था
वो इब्तिदा-ए-इश्क़ का मौसम ही और था
जिस ने मिरे शुऊ'र को बख़्शा था ए'तिबार
वो ग़म ग़म-ए-हयात न था ग़म ही और था
वो लन-तरानियाँ न वो लाफ़-ओ-ग़ज़ाफ था
वो आ गया तो बज़्म का आलम ही और था
तहज़ीब-ए-नौ ने मोम को पत्थर बना दिया
इक दिन वो था फ़साना-ए-आदम ही और था
लज़्ज़त-शनास ज़ेर-ए-ग़म-ए-इश्क़ था ये दिल
लेकिन जो अब के बार मिला सम ही और था
शरह-ओ-बयाँ से और उलझता चला गया
ऐ हम-नशीं वो क़िस्सा-ए-मुबहम ही और था
पहले भी अर्ज़-ए-हाल ये रोया है वो मगर
कल रात उस का गिर्या-ए-पैहम ही और था
ख़ंजर की धार जिस ने रग-ए-जाँ से काट दी
वो ए'तिबार-ए-अज़्मत-ए-आदम ही और था
'जाबिर' हरीफ़-ए-गर्दिश-ए-दौराँ था उन दिनों
वो था शरीक-ए-हाल तो दम-ख़म ही और था
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