मेरे जुनून-ए-शौक़ का आलम ही और था वो इब्तिदा-ए-इश्क़ का मौसम ही और था जिस ने मिरे शुऊ'र को बख़्शा था ए'तिबार वो ग़म ग़म-ए-हयात न था ग़म ही और था वो लन-तरानियाँ न वो लाफ़-ओ-ग़ज़ाफ था वो आ गया तो बज़्म का आलम ही और था तहज़ीब-ए-नौ ने मोम को पत्थर बना दिया इक दिन वो था फ़साना-ए-आदम ही और था लज़्ज़त-शनास ज़ेर-ए-ग़म-ए-इश्क़ था ये दिल लेकिन जो अब के बार मिला सम ही और था शरह-ओ-बयाँ से और उलझता चला गया ऐ हम-नशीं वो क़िस्सा-ए-मुबहम ही और था पहले भी अर्ज़-ए-हाल ये रोया है वो मगर कल रात उस का गिर्या-ए-पैहम ही और था ख़ंजर की धार जिस ने रग-ए-जाँ से काट दी वो ए'तिबार-ए-अज़्मत-ए-आदम ही और था 'जाबिर' हरीफ़-ए-गर्दिश-ए-दौराँ था उन दिनों वो था शरीक-ए-हाल तो दम-ख़म ही और था