मिरा वजूद उसी की विसाल-गाह में था उसी का विर्द मिरे दिल की ख़ानक़ाह में था तुम्हारे क़ौल-ओ-क़सम पर फ़रेब क्या खाता तुम्हारा तर्ज़-ए-अमल भी मिरी निगाह में था हुरूफ़-ए-मक्र तिरे लब पे थे मगर ज़ालिम मुझे फ़रेब भी खाना वफ़ा की राह में था तमाम संग-दिली या कि फिर ग़ुरूर-ओ-हशम कुछ और उस के सिवा भी जहाँ-पनाह में था टपक के दीदा-ए-नम से सदाएँ देता है जो एक हर्फ़-ए-तमन्ना दिल-ए-तबाह में था मुझे तो रास ऐ 'ख़ालिद' यही ज़मीं आई ये और बात मिरा ज़िक्र मेहर-ओ-माह में था