मिरा वजूद उसी की विसाल-गाह में था

By khalid-mubashshirNovember 3, 2020
मिरा वजूद उसी की विसाल-गाह में था
उसी का विर्द मिरे दिल की ख़ानक़ाह में था
तुम्हारे क़ौल-ओ-क़सम पर फ़रेब क्या खाता
तुम्हारा तर्ज़-ए-अमल भी मिरी निगाह में था


हुरूफ़-ए-मक्र तिरे लब पे थे मगर ज़ालिम
मुझे फ़रेब भी खाना वफ़ा की राह में था
तमाम संग-दिली या कि फिर ग़ुरूर-ओ-हशम
कुछ और उस के सिवा भी जहाँ-पनाह में था


टपक के दीदा-ए-नम से सदाएँ देता है
जो एक हर्फ़-ए-तमन्ना दिल-ए-तबाह में था
मुझे तो रास ऐ 'ख़ालिद' यही ज़मीं आई
ये और बात मिरा ज़िक्र मेहर-ओ-माह में था


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