मिरे ग़ुबार भरे आइनों में रहती है वो आँख जिस के लिए रौशनी तरसती है इस इंहिमाक से तस्वीर देखता हूँ तिरी कि एक बार तो इस्क्रीन भी लरज़ती है दो एक दीप से जुगनू तो आँख आँख में हैं कहीं कहीं पे चराग़ों की सरपरस्ती है तुम्हारे ध्यान की मीठी सी दूधिया ख़ुशबू हयात-बख़्श है इतनी कि ऐन हस्ती है तमाम रात पुराने दिनों की इक नागिन समय की खिड़कियों से आ के दिल को डसती है