मुझ से ऐसे वामांदा-ए-जाँ को बिस्तर-विस्तर क्या पल दो पल को मूँद लूँ आँखें वर्ना घर-वर क्या छोड़ो क्या रोना ले बैठे रंज-ओ-राहत का क़ैद ही जब ठहरी हस्ती तो बेहतर-वेहतर क्या मैं भी सर टकराता फिरा हूँ दीवारों से बहुत ढूँढ रहे हो इस गुम्बद में कोई दर-वर क्या आख़िर को थक-हार के मुझ को ज़मीन पर आना है ज़ोर-ओ-शोर-ए-बाज़ू कैसा शहपर-वहपर क्या मेरे क़लम ही से जब मेरा रिज़्क़ उतरा है जाना है इक कार-ए-ज़ियाँ को दफ़्तर-वफ़्तर क्या सूरत एक तराशूँगा तो सौ रह जाएँगी क्यूँ पत्थर को सुबुक करूँ मैं पैकर-वैकर क्या बालीदा बार-आवर होना मिट्टी हो जाना सरसब्ज़ ज़रख़ेज़ी कैसी बंजर-वंजर क्या आब ओ सराब ओ ख़्वाब ओ हक़ीक़त एक से लगते हैं दीदा-वरी क्या आईना का जौहर-वौहर क्या मुझ को बहाए ले जाती है ख़ुद ही मौज मिरी मेरा रस्ता रोक सकेंगे पत्थर-वत्थर क्या रंग-ए-शफ़क़ सब्ज़े का नशा कुछ नहीं आँखों में दूर ख़ला में देख रहा हूँ मंज़र-वंज़र क्या मेरा और साहिल का रिश्ता कब का टूट चुका 'ज़ेब' कहाँ का ख़ेमा-ए-कश्ती लंगर-वंगर क्या