मुझ को वो भी बसा-ग़नीमत था
By jamal-ehsaniFebruary 26, 2024
मुझ को वो भी बसा-ग़नीमत था
उस से जो रिश्ता-ए-शिकायत था
अब ये 'उक़्दा खुला की उस के लिए
मैं मोहब्बत नहीं ज़रूरत था
तू ने एहसास ही न होने दिया
जो भी कुछ था तिरी बदौलत था
मुझ पे उस चश्म-ए-तर ने सहल किया
वर्ना ये 'इश्क़ तो मुसीबत था
मैं ने वो हिज्र भी गुज़ारा है
जब तिरा क़ुर्ब भी निहायत था
उस से जो रिश्ता-ए-शिकायत था
अब ये 'उक़्दा खुला की उस के लिए
मैं मोहब्बत नहीं ज़रूरत था
तू ने एहसास ही न होने दिया
जो भी कुछ था तिरी बदौलत था
मुझ पे उस चश्म-ए-तर ने सहल किया
वर्ना ये 'इश्क़ तो मुसीबत था
मैं ने वो हिज्र भी गुज़ारा है
जब तिरा क़ुर्ब भी निहायत था
71107 viewsghazal • Hindi