मुरझाए हुए फिर गुल-ए-तर देख रही हूँ ना-क़द्री-ए-अर्बाब-ए-हुनर देख रही हूँ फिर चश्म-ए-तग़ाफ़ुल से तिरी हश्र बपा है मैं गर्दिश-ए-दौराँ की नज़र देख रही हूँ मिज़्गाँ पे लरज़ते हुए अश्कों के दिए हैं वाबस्ता-ए-जाँ बर्क़-ओ-शरर देख रही हूँ क्या हुस्न-ए-बसारत में बसीरत की कमी है कुछ अहल-ए-नज़र चाक-ए-जिगर देख रही हूँ पिंदार-ए-वफ़ा तमकनत-ए-होश ख़बर-दार अफ़्लाक पे धरती के क़मर देख रही हूँ अब तक ये रिवायात-ए-कुहन जाग रही हैं कुछ लाल-ओ-गुहर ख़ाक-बसर देख रही हूँ कुछ तेरी निगाहों ने दिखाया है तमाशा कुछ तुर्फ़ा ज़माने का असर देख रही हूँ तस्ख़ीर-ए-मह-ओ-मेहर के बा-वस्फ़ 'अज़ीज़' आज उजड़े हुए ख़ामोश नगर देख रही हूँ