न कर पाए दुश्मन भी जो दुश्मनी में किया है रफ़ीक़ों ने वो दोस्ती में बुज़ुर्गों से पाया है ये राज़ हम ने है जीने की लज़्ज़त फ़क़त सादगी में अबस है इबादत अबस इस का तक़्वा अगर आदमियत नहीं आदमी में फ़लक तक अगर तू गया भी तो क्या है बहुत फ़ासला है अभी आगही में ज़माने को अब कोई कैसे बताए बड़ी तीरगी है नई रौशनी में बहादुर मरा एक ही बार 'लाग़र' कई बार बुज़दिल मरा ज़िंदगी में