न सुनती है न कहना चाहती है हवा इक राज़ रहना चाहती है न जाने क्या समाई है कि अब की नदी हर सम्त बहना चाहती है सुलगती राह भी वहशत ने चुन ली सफ़र भी पा-बरहना चाहती है तअल्लुक़ की अजब दीवानगी है अब उस के दुख भी सहना चाहती है उजाले की दुआओं की चमक भी चराग़-ए-शब में रहना चाहती है भँवर में आँधियों में बादबाँ में हवा मसरूफ़ रहना चाहती है