नहीं अकबर यहाँ मुझ शेर की ख़्वाहाँ बयानी से

By abaan-asif-kachkarApril 22, 2024
नहीं अकबर यहाँ मुझ शेर की ख़्वाहाँ बयानी से
ज़ि-बस मक़्दूर है मक़्दूर पर मातम ज़बानी से
गह-ए-हस्ती कहीं ज़ाहिर पता हम सर से लावे है
धुआँ उठता है फिर पस अज़ फ़ना सोज़-ए-निहानी से


तही दिल जान-ए-मा गुज़री तो क्या घबरा के पूछो हो
अबस दिल ना-तवाँ गुज़रा सरापा ना-तवानी से
हवा की शौक़-ए-मय उड़ जावे है ख़ाम-ए-ख़याली को
उबूर-ए-अब्र तूलानी कि बरसे मय-फ़िशानी से


उन्हों के वादा-ए-फ़र्दा को गर इमरोज़ मिल जाता
दिवाना मर नहीं जाता जो मिल जाता दिवानी से
ख़मोशी भर रही है दर्द अपना गिनते जाते हैं
दवा बेज़ार रहती है ख़ुदाया सरगिरानी से


मुनाफ़िक़ अब कहाँ दुश्मन की सम्त-ए-रह से जा लागे
एवज़ दुश्मन बने है याँ मुनाफ़िक़ बद-गुमानी से
सुख़न-वर हैं बहुत अच्छे किताबों से चुरावे जो
'अबान' को देख लिखता है तबीअ'त की रवानी से


14895 viewsghazalHindi