नियाज़-ओ-नाज़ की ये शान-ए-ज़ेबाई नहीं जाती हमारी ख़ुद-सरी उन की ख़ुद-आराई नहीं जाती हज़ारों आईने हो कर मुक़ाबिल टूट जाते हैं मगर हुस्न-ए-अज़ल की शान-ए-यकताई नहीं जाती कोई दिलकश नज़ारा हो कोई दिलचस्प मंज़र हो तबीअ'त ख़ुद बहल जाती है बहलाई नहीं जाती मोहब्बत की हक़ीक़त कम नहीं असरार-ए-हस्ती से समझ लेता हूँ लेकिन मुझ से समझाई नहीं जाती ब-ज़ाहिर ज़ब्त-ए-पैहम भी शरीक-ए-दर्द-ए-उल्फ़त है 'शकील' इस पर भी अपने दिल की रुस्वाई नहीं जाती