पहले सुब्ह का रौशन तारा सिर्फ़ हमारे ध्यान में था लेकिन अज़्म की लौ भड़की तो सूरज भी इम्कान में था शहर-ए-जाँ से दश्त-ए-अदम तक कर्ब का मौसम साथ रहा जाने किस की खोज में थे हम किस का चेहरा ध्यान में था शहर-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ में शोर था घटते बढ़ते निर्ख़ों का लेकिन उस शफ़्फ़ाफ़ गली का हर लम्हा निरवान में था महरूमी की बर्फ़ पिघल कर मेरी रगों में जम जाती आँख में सूरज दर आते ही जिस्म भी आतिश-दान में था मैं ठहरा इक मुफ़्लिस शाइ'र नज़्र उसे करता भी क्या बस ये जीवन वार आया हूँ जीवन ही इम्कान में था सारी उम्र गुज़ारी 'साग़र' तब ये तिलिस्म-ए-ज़ात खुला इक चेहरे का अक्स था मुझ में इक चेहरा गुल-दान में था