फिर एक दूसरी हिजरत नहीं ज़मीन नहीं

By akash-arshMay 30, 2024
फिर एक दूसरी हिजरत नहीं ज़मीन नहीं
ये मेरी ममलिकत-ए-दर्द मुझ से छीन नहीं
नवाह-ए-याद की दिल ने मुसाफ़िरत छोड़ी
कि एक शख़्स भी उस कुंज का मकीन नहीं


ग़ुबार-बस्ता सितारों से भर चुका आँखें
वो क़ाफ़िला
कि किसी सुब्ह का अमीन नहीं
मैं तेरे हदिया-ए-फुर्क़त पे कैसे नाज़ाँ हूँ


मिरी जबीं पे तिरा ज़ख़्म तक हसीन नहीं
सफ़र में हूँ कि नहीं सोचता रहूँगा 'अर्श'
ज़मीं ज़मान नहीं और ज़माँ ज़मीन नहीं
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