क़दम क़दम पे लहू का निशान रखता है

क़दम क़दम पे लहू का निशान रखता है
वो लौह-ए-दिल पे हसीं दास्तान रखता है

दबोच लेता है अल्फ़ाज़ और मआ'नी को
नज़र उक़ाबी है ऊँची उड़ान रखता है

तराशता है ख़यालों में नित-नए पैकर
वो अपनी फ़िक्र-ए-रसा को जवान रखता है

सऊबतों के सफ़ीने में ज़िंदा रह कर भी
वो ज़ेहन-ओ-दिल का खुला बादबान रखता है

समेटता रहा अपने ही ख़ून की बूँदें
जो अपने हाथ में टूटी कमान रखता है

झपटता है खुले जंगल में साइक़ा बन कर
शिकार भी कहीं ऊँचा मचान रखता है

ये उस की ज़ात की पहचान बन गई है 'रईस'
भरे दयार में उजड़ा मकान रखता है


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