रात तहरीरों की अब यकसर ख़याली हो गई
By ali-abbas-ummeedJune 2, 2024
रात तहरीरों की अब यकसर ख़याली हो गई
लफ़्ज़ जब जागे 'इबारत भी निराली हो गई
अनगिनत चेहरे थे शहर-ए-दिल में लेकिन क्या कहूँ
वक़्त का साया पड़ा बस्ती ये ख़ाली हो गई
जिन का इक इक लफ़्ज़ था मुज़्दा नए मौसम के नाम
हैफ़ उन सफ़्हात की सूरत भी काली हो गई
दिल के महबस से चले थे क़ाफ़िले यादों के पर
इक किरन पलकों की सूली पर सवाली हो गई
हम-सफ़र शाइस्तगी थी रहगुज़ार-ए-ज़ीस्त में
फिर भी जिस से बात की हर बात गाली हो गई
हादसों की धुँद से फ़नकार ने जिस को गढ़ा
शुक्र है उस बुत की पेशानी उजाली हो गई
कैसे इस मौसम को दौर-ए-गुल कहूँ 'उम्मीद' मैं
रंग से महरूम जब इक एक डाली हो गई
लफ़्ज़ जब जागे 'इबारत भी निराली हो गई
अनगिनत चेहरे थे शहर-ए-दिल में लेकिन क्या कहूँ
वक़्त का साया पड़ा बस्ती ये ख़ाली हो गई
जिन का इक इक लफ़्ज़ था मुज़्दा नए मौसम के नाम
हैफ़ उन सफ़्हात की सूरत भी काली हो गई
दिल के महबस से चले थे क़ाफ़िले यादों के पर
इक किरन पलकों की सूली पर सवाली हो गई
हम-सफ़र शाइस्तगी थी रहगुज़ार-ए-ज़ीस्त में
फिर भी जिस से बात की हर बात गाली हो गई
हादसों की धुँद से फ़नकार ने जिस को गढ़ा
शुक्र है उस बुत की पेशानी उजाली हो गई
कैसे इस मौसम को दौर-ए-गुल कहूँ 'उम्मीद' मैं
रंग से महरूम जब इक एक डाली हो गई
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